पिछले दिनों मीडिया में छपी खबरों के अनुसार, सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत खर्च पर कुछ पाबंदियाँ लगाई हैं.
10 जून को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित एक खबर के अनुसार, सरकार ने वित्तीय वर्ष 2025-26 की पहली छमाही के लिए मनरेगा के तहत खर्च को अपने वार्षिक आवंटन के 60 प्रतिशत तक सीमित कर दिया है. सरकार का यह निर्णय मनरेगा की मूल अवधारणा के खिलाफ है.
मनरेगा की मूल अवधारणा की अवहेलना:
मनरेगा एक मांग-आधारित योजना है, जिसमें कोई भी बेरोजगार व्यक्ति काम माँग सकता है. जितने मजदूर काम माँगेंगे, उतना काम देना होगा.
इसमें कोई रुकावट नहीं आनी चाहिए, जब तक कि एक परिवार 100 दिन का रोजगार पूरा न कर ले. मांग के आधार पर काम देना मनरेगा की मूल भावना है.
यह काम मजदूर वित्तीय वर्ष के किसी भी महीने में माँग सकता है. मनरेगा कानून के अनुसार, इसमें कोई भी रुकावट मजदूरों के काम के कानूनी अधिकार के खिलाफ है.
इसी के चलते मनरेगा को वित्त मंत्रालय के सरकारी खर्च को नियंत्रित करने वाले नियमों से बाहर रखा गया था. गौरतलब है कि वित्त मंत्रालय ने वर्ष 2017 में मासिक/त्रैमासिक व्यय योजना लागू की थी,
जिसका तथाकथित मकसद मंत्रालयों को नकदी प्रवाह प्रबंधन और अनावश्यक उधारी से बचाने में मदद करना था. अब तक ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत आने वाली मनरेगा को इसके दायरे से बाहर रखा गया था,
क्योंकि ग्रामीण विकास मंत्रालय का तर्क था कि यह एक मांग-आधारित योजना है, जिस पर खर्च की निश्चित सीमा तय करना व्यवहारिक नहीं है.
लेकिन वित्तीय वर्ष 2025-26 की शुरुआत में, वित्त मंत्रालय ने ग्रामीण विकास मंत्रालय को निर्देश दिया है कि मनरेगा को भी मासिक/त्रैमासिक व्यय योजना के ढाँचे के अंतर्गत लाया जाए.
केंद्र सरकार की नीति और ‘रोजगार के अधिकार’ पर हमला:
हालांकि, भाजपा-नीत केंद्र सरकार के इस फैसले से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह कोई इकलौता फैसला नहीं है, जो न केवल ग्रामीण भारत में रोजगार प्रदान करने वाली मनरेगा को कमजोर करेगा, बल्कि इसके तहत ‘रोजगार के अधिकार’ के भी खिलाफ है.
बजट में लगातार कटौती से लेकर भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर नित नई जटिलताएँ पैदा करने वाली तकनीकों का बड़े पैमाने पर उपयोग-ये सभी कदम मनरेगा के मौलिक सिद्धांतों को कमजोर करने वाले हैं.
मोदी सरकार अपने इन कदमों से न केवल विभिन्न अध्ययनों द्वारा सिद्ध मनरेगा की उपयोगिता को अनदेखा करती है, बल्कि ग्रामीण आर्थिक संकट और बेरोजगारी की गंभीर समस्या से निपटने में अपनी उदासीनता भी दर्शाती है.
यदि उपरोक्त निर्णय लागू होता है, तो इसका मतलब है कि इस वर्ष सितंबर के अंत तक इस योजना के लिए बजट आवंटन (86,000 करोड़ रुपये) का 60 प्रतिशत, यानी केवल 51,600 करोड़ रुपये ही उपलब्ध होंगे.
यह मनरेगा के तहत रोजगार सृजन को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा, क्योंकि इसका एक बड़ा हिस्सा, 21,000 करोड़ रुपये, पिछले वित्तीय वर्ष की लंबित देनदारियों के भुगतान में खर्च हो चुका है.
इस तरह के फैसले से जमीनी स्तर पर मांग के बावजूद मजदूरों को मनरेगा में काम के लिए विभिन्न तरीकों से हतोत्साहित किया जाएगा.
अधिकांश समस्याओं का मूल कारण अपर्याप्त बजट:
दरअसल, मनरेगा को कमजोर करने का सबसे बड़ा कारण लगातार बजट में कमी और समय पर आबंटन का राज्यों तक न पहुँचना है, इससे सभी प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती हैं.
हालांकि, हमारी वित्त मंत्री समय-समय पर मीडिया में दावा करती रहती हैं कि मनरेगा के लिए धन की कोई कमी नहीं है और काम की मांग के अनुसार इसमें कोई कमी नहीं होने दी जाएगी, लेकिन यह दावा सच्चाई से कोसों दूर है.
धन की कमी के चलते ही अघोषित रूप से काम की मांग को नियंत्रित किया जाता है. विभिन्न तरीकों से मजदूरों को हतोत्साहित किया जाता है. यह बात सरकार की संसदीय समिति की 2024 की एक रिपोर्ट में भी एक बड़ी कमजोरी के रूप में चिह्नित की गई है.


