MAHA KUMBH 2025: नफरती एजेंडे की बलिवेदी पर चढ़ा कुंभ का मेला: बादल सरोज (PART-1)

gorakhpur halchal

एक महीने तक चलने वाले कुंभ मेले का आरम्भ हो गया है. कुंभ, उसमें भी इलाहाबाद – जिसे अब प्रयागराज कहने का हुक्म है-का कुंभ पृथ्वी के इस हिस्से का सबसे बड़ा मेला है.

मनुष्यता के असाधारण एकत्रीकरण और समावेश के आकार और जुटान की तादाद को देखते हुए यह मेला अपनी मिसाल आप ही है. जन्मना इलाहाबादी जवाहरलाल नेहरू लिखते है कि

बिना किसी मुनादी, विज्ञापन या जाहिर सूचना के लाखों लोगों का नियत तारीख पर गंगा किनारे पहुँच जाना दुनिया को विस्मित कर सकता है, मगर यह सदियों में विकसित हुई परम्परा है, जो संस्कृति का अंग बन गयी.

नेहरू के जमाने में लाखों की संख्या भी काफी हुआ करती थी; अब यह करोड़ों से दसियों करोड़ होने की ओर अग्रसर होती जा रही है. यह सचमुच ही बड़ी, बहुत बड़ी तादाद है.

इस बार तो दावा किया जा रहा है कि कोई 45 करोड़, मतलब हिन्दुस्तान की कुल आबादी के एक तिहाई बाशिंदे कुंभ में जाकर डुबकी लगाने वाले हैं.

अब दावे तो दावे हैं और ऊंची फेंकने की इस विधा में विश्वगुरुत्व का दावा निर्विवाद है, उसे कोई चुनौती नहीं दी जा सकती!! कुंभ परम्परा और पुराण कथाओं का ऐसा मेल है, जो अपनी धार्मिक संलग्नता के बावजूद अबाध निरंतरता के चलते संस्कृति और इतिहास का हिस्सा बन गया है.

भारतीय प्रायद्वीप के लिए इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में होने वाले कुंभ के मेले तीन वर्ष के एक निश्चित अंतराल के बाद न सिर्फ मिलने-मिलाने, सुख-दुःख की खबरें साझी करने,

एक दूजे की जीवन शैली और रीति-नीति समझने के स्थान और अवसर रहे है, बल्कि दार्शनिक, धार्मिक और सामाजिक मुद्दों पर एक दूसरे का नजरिया जानने, बूझने और बहस मुबाहिसों के केंद्र भी रहे हैं.

मेगस्थनीज, फाहियान, ह्वेनसांग से लेकर अल बैरूनी तक भारत आये हर विदेशी इतिहासकार ने इसकी इसी विशिष्टता को दर्ज किया है. पहली बार कुंभ-मेले के शब्द युग्म का उपयोग करने वाले

औरंगजेब के जमाने में लिखे गए मुगलकालीन गजट ‘ख़ुलासत-उत-तवारीख’ में भी इसका वर्णन इसी तरह से दर्ज किया गया है. बुद्ध से सीखते हुए आठवीं-नवीं सदी में बुद्ध के वैचारिक वर्चस्व को ख़त्म करने के लिए

”ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या’ का सूत्र लेकर दक्षिण के मलाबार से निकले शंकराचार्य ने बाकी सबके साथ कुंभ को भी उसका मौजूदा रूप देने में भूमिका निबाही.

ये जो अखाड़े निकाले जाते हैं, उन अखाड़ों को मान्यता और अधिकार देने की योजना उन्हीं की थी–इसके पीछे हिन्दू धर्म के एक-दूसरे से भिन्न और कई मामलों में अलग पंथों को साथ लाने का इरादा मुख्य था.

हालांकि काफी समय तक यह अलग-अलग धर्मों के बीच चर्चा-परिचर्चा का केंद्र भी रहा और इसमें बौद्ध भिक्खुओं की भागीदारी होती रही, तब तक जब तक कि शंकराचार्य के अखाड़ों ने उन्हें निर्णायक रूप से खदेड़ा नहीं.

हालांकि उनकी इस परिकल्पना को अमल में लाते-लाते कोई छह सदियां लग गयीं, तब जाकर वह अखाड़ों की पेशवाई और उनके शाही स्नान तक पहुंचा.

ध्यान दें, कुंभ के विधिवत आगाज़ से जुड़े ये दोनों शब्द पेशवा और शाही फ़ारसी भाषा के शब्द हैं और यह सिर्फ भाषाई मसला नहीं है ; यह समावेशी निरंतरता-इंक्लूसिव इवोल्यूशन-का उदाहरण है.

(To Be Continued…)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *