तवलीन सिंह एक जानी-मानी स्तंभ लेखक हैं. गत 8 दिसंबर 2024 को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित उनके कॉलम में उन्होंने अफगानिस्तान में महिलाओं के चिकित्सा विज्ञान पढ़ने पर प्रतिबंध की चर्चा की है.
यह प्रतिगामी कदम उठाने के लिए उन्होंने अफगानिस्तान की तालिबान सरकार की बहुत तीखे शब्दों में आलोचना की है और यह ठीक भी है. उन्होंने यह भी लिखा है कि वामपंथी-उदारवादी तालिबान के प्रति सहानुभूति का रूख रखते हैं.
यह कहना मुश्किल है कि उदारवादी-वामपंथियों के तालिबान और ईरान (जहां के शासकों की भी महिलाओं के बारे में वैसी ही सोच है) के प्रति रूख के बारे में तवलीन सिंह की टिप्पणी कितनी सही है.
तवलीन सिंह ने उन लोगों की भी आलोचना की है, जो हिन्दू राष्ट्रवादियों की नीतियों औैर कार्यक्रमों की तुलना तालिबान से करते हैं. हिन्दू राष्ट्रवादियों और तालिबान की नीतियां और कार्यक्रमों में परिमाण या स्तर का फर्क हो सकता है, मगर दोनों में मूलभूत समानताएं हैं.
तालिबान, खाड़ी के कई देशों और ईरान के महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं, परंतु एकदम एक समान नहीं हैं. किन्हीं भी दो देशों की नीतियां एकदम एक-सी नहीं हो सकतीं, परंतु सैद्धांतिक स्तर पर हम उनमें समानताएं ढूंढ सकते हैं.
इन देशों में धार्मिक कट्टरता में बढ़ोत्तरी की शुरूआत 1980 के दशक में ईरान में अयातुल्लाह खौमेनी के सत्ता में आने के साथ हुई. खौमेनी ने ईरान का सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल दिया.
धार्मिक कट्टरता से क्या आशय है? धार्मिक कट्टरता से आशय है चुनिंदा धार्मिक परंपराओं को राज्य की सत्ता का उपयोग कर समाज पर जबरदस्ती लादना. कई बार यह काम सरकार की बजाए वर्चस्वशाली राजनैतिक ताकतों द्वारा किया जाता है.
जो परंपराएं लादी जाती हैं, वे अक्सर प्रतिगामी, दकियानूसी और दमनकारी होती हैं. इस दमन का शिकार महिलाओं के साथ-साथ समाज के अन्य कमजोर वर्ग भी होते हैं.
धार्मिक कट्टरता स्वयं को मजबूत करने के लिए हमेशा एक भीतरी या बाहरी दुश्मन की तलाश में रहती है. अधिकांश खाड़ी के देशों में निशाने पर महिलाएं हैं.
कई देशों में “शैतान अमरीका” ‘दुश्मन’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. जो भी दुश्मन चुना जाता है, समाज और देश की सारी समस्याओं के लिए उसे ही दोषी ठहरा दिया जाता है.
जर्मनी में जन्मे फासीवाद और धार्मिक कट्टरतावाद में यह एक समानता है. जर्मनी में देश की सारी समस्याओं के लिए यहूदियों को जिम्मेदार ठहरा दिया गया और उनके खिलाफ नफरत
इस हद तक पैदा कर दी गई कि जर्मनी के लोग यहूदियों के कत्लेआम को भी नजरअंदाज करने लगे। और यह सब केवल सर्वोच्च नेता की सत्ता को मजबूती देने के लिए किया गया था.
फासीवाद और धार्मिक कट्टरतावाद में एक और समानता है-महिलाओं के प्रति उनका दृष्टिकोण. फासीवादी जर्मनी में कहा जाता था कि महिलाओं की भूमिका रसोईघर, चर्च और बच्चों तक सीमित है.
दूसरे देशों में भी धार्मिक कट्टरतावाद, महिलाओं पर कुछ इसी तरह के प्रतिबंध लगाता है. हिन्दू राष्ट्रवादियों के निशाने पर मुसलमान और कुछ समय से ईसाई भी हैं.
हमने पिछले कुछ दशकों में साम्प्रदायिक हिंसा को भयावह ढंग से बढ़ते देखा है. साम्प्रदायिक हिंसा का परिमाण भी बढ़ा है और उसके तौर-तरीके अधिक व्यापक और खतरनाक बन गए हैं.
(To Be Continued…)


