विकास ही विकास, एक बार चुन तो लें!: विष्णु नागर

gorakhpur halchal/jansatta

एक वीडियो- पत्रकार चुनाव कवरेज के लिए बिहार के लखीसराय के किसी गांव में पहुंचा. उसने एक बुजुर्ग से पूछा-‘विकास पहुंचा है आपके गांव में?’

वह बोले-‘विकास? हम नहीं थे यहां सर, बीमार थे. डाक्टर के यहां गए थे. तो बंधुओं-भगिनियों समझे कुछ?

तुम्हारा-हमारा यह बेहद लोकप्रिय-सा ‘विकास’ शब्द के रूप में भी आज तक ठीक से बिहार नहीं पहुंचा है.

पटना से 130 किलोमीटर दूर भी नहीं जा सका है. ‘विकास’ का नाम सुनते ही आज भी कोई बुजुर्ग डर जाता है, यह अपने-आप में हौलनाक है.

उसे ‘विकास’ शब्द सुनकर उस ‘विकास’ की याद नहीं आती, जिसे पहुंचाने में प्रधानमंत्री जी और मुख्यमंत्री जी बताते हैं कि दिन-रात लगे रहते हैं,

जिसके लिए 18-18 घंटे काम करते रहते हैं, साल में एक दिन की भी छुट्टी नहीं लेते हैं, तोहफे पर तोहफे बांटते चले जाते हैं और जिस ‘विकास ‘ की जिम्मेदारी लेने के लिए अभी पटना में टिकट की भयंकर मारामारी मची.

और जो मारामारी कर रहे थे, सबको अपने लिए नहीं, बल्कि बिहार के ‘विकास’ के लिए टिकट चाहिए था.

जिन्हें भाजपा या कांग्रेस या राजद आदि से टिकट नहीं मिला, वे बेहद दुखी थे और जो टिकट मिलने के बाद भी हार जाएंगे, वे बाद में दुखी पाएंगे,

क्योंकि ऐड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद उन्हें ‘बिहार के विकास’ का सुनहरा अवसर नहीं मिल सकेगा.

एक बार जिसे भी ‘विकास’ की चाबी मिल जाती है, तो फिर उसे अपना विकास ही, देश और प्रदेश का ‘विकास’ लगने लगता है.

‘विकास’ करने से जिंदगी भर का खाने-पीने का इंतजाम हो जाता है और अगली बार टिकट मिलने की संभावना बेहद बढ़ जाती है!

जब टिकट नहीं मिलता है, ‘विकास ‘ करने का अवसर नहीं मिलता है, तो सुबह तक जो पार्टी का अनुशासित सिपाही था, वह शाम होने से पहले विद्रोही हो जाता है.

कफ़न ओढ़कर अपनी जान देने की धमकी देते हुए अपना विडियो जारी करवाता है और उसकी पत्नी आराम से उसकी बगल में बैठी हुई मिलती है कि

पतिदेव टिकट के लिए बलिदान भी हो जाएं, तो उसे कोई समस्या नहीं! दुनिया इन्हें भी भगत सिंह की तरह याद रखेगी!

उधर एक और साहब को टिकट नहीं मिलता है, तो वे कार में रुदन करने का विडियो बनवाते हैं.

‘विकास-विकास’ रोते हैं! तो जो ‘विकास’ अब तक पुल आदि के गिरने के रूप में हुआ है, वह इन जैसों के हित में ही हुआ है.

पुल का पहली बार बनना भी ‘विकास ‘ था और उसका गिरना भी ‘विकास’ है और फिर दुबारा बनना भी ‘विकास’ होगा और कभी तीसरी बार भी गिर गया, तो वह ‘सुपर विकास’ होगा!

उधर लखीसराय जिले का ग्रामीण समझता रहेगा कि ‘विकास’ कोई बला है और ये साहब जो ‘विकास’ के पहुंचने की इन्क्वायरी करने आए हैं, असल में सादी वर्दी में पुलिस के दरोगा हैं.

ये चोर और बदमाश ‘विकास’ को पकड़ने आए हैं. वह साफ-साफ कहता है कि वह तो गांव में था ही नहीं , डाक्टर को दिखाने गया था.

हो सकता है, वह वाकई गया हो या न गया हो, मगर वह इस बुढ़ौती में दरोगा के झंझट में पड़कर अपनी रही-सही ज़िंदगी बर्बाद करना नहीं चाहता!

उसने ‘विकास’ को भले न देखा हो मगर इन दरोगाओं और साहबों को बहुत बार, बहुत तरह से देखा है, वह इनसे डरने‌ लगा है.

वह जानता है कि ये जब भी आते हैं, तो किसी न किसी को फांसने आते हैं, इसलिए वह इनसे न कहना ही बेहतर समझता है! हां कहने में खतरा है!

पूछताछ के लिए पता नहीं ये कहां ले जाएं और न जाने किस-किस तरह से उसकी मिट्टी पलीद करें! फिर वह नहीं, उसकी लाश लौटे या वह भी न लौटे!

ग्रामीण भारत में अब भी अनेक बार संवाददाता को सरकारी अफसर समझ लिया जाता है, क्योंकि संवाददाता पांच साल में एक बार चुनाव के समय आता है,

मगर अफसर कुछ न कुछ काला-पीला करने अकसर आते हैं. जो भी मिल जाए, झटककर ले जाते हैं.

सुनो मोदी जी और सुनो नीतीश जी और सुनो तेजस्वी यादव जी और लालू जी आप भी! यह जो बिहार का ‘विकास-विकास’ आप लोग दिन-रात शोर मचाए रहते हो,

आपस में झगड़ते हो कि ‘विकास’ हमने किया, इन्होंने नहीं किया! हम अब फिर से करेंगे ‘विकास’, बिहार को नंबर वन बना देंगे,

आपका यह ‘विकास’ अभी तक गांव के बुजुर्ग को डराने की हद तक ही पहुंच सका है। ‘विकास’ ‘नाम उसके लिए किसी गुंडे-बदमाश का पर्याय है.

इसी ‘विकास’ की राह आसान करने के लिए चुनाव आयोग ने बिहार में एस आई आर करवाया है। जो गड़बड़ियां नहीं थीं, उन्हें संभव करवाया है.

यह वही ‘विकास’ है, जिसे संभव करने के लिए अडानी जी हर दिन आतुर रहते हैं और हर दिन नये-नये ठेके प्राप्त करते रहते हैं

और बैंकों में देश के साधारण जनों की जमा हजारों करोड़ रुपए से ‘विकास’ के नाम पर ऋण लेते रहते हैं.

जिनके लिए लाखों पेड़ों से हरे-भरे जंगल को परती भूमि बता दिया जाता है और इन पेड़ों को काटने का अधिकार दे दिया जाता है और पर्यावरण संरक्षण कानून से छूट दे दी जाती है.

इतना अधिक ‘विकास’ हुआ है बिहार का कि आज भी मुसहर चूहे खाकर गुजारा कर रहे हैं! आज भी राशनकार्ड पर राशन वाला पांच लोगों के कार्ड पर एक का राशन खुद खा जा रहा है.

इतना ‘विकास’ हुआ है बिहार का कि वहां इतने ज्यादा ‘घुसपैठिये’ आ गए हैं कि बिहारी गरीब को रोजी-रोटी के लिए दिल्ली से केरल तक जाना पड़ रहा है!

फिर भी ‘विकास’ तो करना है। ‘विकास’ नहीं करेंगे, तो कमीशन से अपनी झोली कैसे भरेंगे! झोली नहीं भरेंगे,

तो ख़ुद को और पार्टी को कैसे चलाएंगे और खुद को और पार्टी को नहीं चलाएंगे, तो अपनी राजनीति कैसे चलाएंगे और राजनीति नहीं चलाएंगे, तो देश ठप हो जाएगा, तो उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? विष्णु नागर जी आप लेंगे?

(कई पुरस्कारों से सम्मानित विष्णु नागर साहित्यकार और स्वतंत्र पत्रकर हैं। जनवादी लेखक संघ के उपाध्यक्ष है)

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