पूजने तो दो यारों!: राजेंद्र शर्मा (आलेख)

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यह तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बनाना नहीं, तो और क्या है? और कुछ नहीं मिला, तो अभक्तों ने फुले की जीवनीपरक फिल्म पर सेंसर बोर्ड के यहां-वहां कैंची चलाने पर ही हंगामा कर रखा है.

सेंसर बोर्ड वाले भी बेचारे क्या करते? फिल्म ब्राह्मणों की भावनाओं को आहत जो कर रही थी. वैसे सच पूछिए, तो कसूर फिल्म का भी नहीं था। जब फुले की जीवनी ही ब्राह्मणों की भावनाओं को आहत करने वाली थी,

फिल्म बनाने वाले बेचारे ब्राह्मणों की भावनाओं को आहत होने से बचाते भी, तो कहां तक बचाते? अव्वल तो फुले का होना यानी ब्राह्मणों की नजरों में पड़ना ही उनकी भावनाओं को आहत करने वाला था.

उनकी जाति नीची जो थी। वर्ना उन्हें ब्राह्मण दोस्त की बारात में से अपमानित कर के क्यों भगाया जाता। नीची जाति में जन्म लेकर भी, लिखने-पढ़ने का काम यानी ब्राह्मणों का डबल-डबल अपमान!

और उसके ऊपर से लड़कियों को और निचली जातियों के बच्चों को पढ़ाने की जिद यानी ब्राह्मणों के ऊंचे आसन को हिलाने की कोशिश, यानी ब्राह्मणों का घनघोर टाइप का अपमान ही नहीं, उन पर घातक हमला. ब्राह्मणों का ट्रिपल-ट्रिपल अपमान.

इस सब के ऊपर ब्राह्मणों को अब अमृतकाल में इसकी याद दिलाकर चिढ़ाना कि कभी ऐसे-ऐसों ने भी उनका अपमान किया था, जबकि वे अपने अपमान की ऐसी सारी बातों को कब के भूल चुके हैं यानी भावनाओं पर चौपल-चौपल आघात.

विरोध तो होना ही था, विरोध होने पर सेंसर बोर्ड का अपनी कैंची पर हाथ जाना ही था; आखिर विरोध ब्राह्मणों का था, मुसलमानों या दलित-वलित का थोड़े ही था,

फिर भी विरोध ब्राह्मणों का, फिल्म फुले की, कैंची सेंसर बोर्ड की और सेंसर की कैंची चलने के लिए ब्लेम मोदी जी सरकार पर! यह तो सरासर जुल्म है भाई.

यह जुल्म भी तब है, जबकि फुले की फिल्म पर सेंसर की कैंची चलना अपनी जगह, मोदी जी, फडनवीस जी आदि, आदि सारे जी लोग ने ज्योतिराव फुले की जयंती पर दिल खोलकर फूल बरसाए हैं.

हैलीकोप्टर वाले न सही, हैलीकोप्टर वाले फूल कांवड़ियों और कुंभ स्नानार्थियों के लिए रिजर्व्ड सही, ट्विटर पर प्रशंसा के फूल तो बरसाए ही हैं और यह पहली बार नहीं है, जब मोदी जी के परिवार ने फुले पर शब्दों के फूल बरसाए हैं.

चेक कर के देख लीजिए, पिछले बरस भी बरसाए होंगे, उससे पिछले बरस भी. मोदी परिवार जब से राज में आया है, किसी भी महापुरुष का बर्थ डे उसने, शब्दों के फूल बरसाए बिना नहीं निकलने दिया है.

महापुरुषों वाले फूल बरसाए जाने की बस एक ही शर्त है, बंदा मुसलमान नहीं होना चाहिए वर्ना शब्दों के फूलों के भी अंगार बन जाने का खतरा रहता है.

 

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