संथारा: 3 साल की बच्ची की मौत लंबे समय तक क्यों सालती रहेगी? आलेख: सुभाष गाताडे (PART-2)

गोरखपुर हलचल

नम्रता की दर्दनाक मौत कई सवाल खड़े करती है, जैसे- कैसे उसके विद्वान माता-पिता की अजीब धार्मिक मान्यताओं ने उसे उसके अंतिम समय में एक तरह की यातना सहने के लिए मजबूर किया, जब वह गहरी पीड़ा में थी.

कैसे उन महत्वपूर्ण क्षणों में जब बच्ची को अतिरिक्त देखभाल की आवश्यकता थी-शायद दर्द कम करने के लिए कुछ इंजेक्शन और अपने करीबी लोगों की संगति की जरूरत थी-

उसे एक अज्ञात स्थान पर ऐसे अज्ञात लोगों के बीच स्थानांतरित कर दिया गया, जिन्होंने उसे ऐसे अनुष्ठानों में शामिल किया, जिससे उसका दर्द और बढ़ गया.

यह सारा अत्याचार कथित तौर पर मूल रूप से ‘उसके अगले जन्म को बेहतर बनाने’ और उसे “संथारा लेने वाली सबसे कम उम्र की महिला” बनाने के लिए किया गया था.

आप इसे किसी भी तरह से कहने की कोशिश करें, आध्यात्मिक गुरु ने उस बच्ची के माता-पिता के साथ मिलकर न केवल बच्ची के दर्द को बढ़ाया, बल्कि उसकी मृत्यु को भी और निकट ला दिया।

हमारा संविधान मानव जीवन की पवित्रता को अच्छी तरह से मान्यता देता है और प्रत्येक व्यक्ति के पास ऐसे अविभाज्य अधिकार हैं, जिन्हें तब तक नहीं छीना जा सकता, जब तक कि कानून स्वयं ऐसा करने का आदेश न दे.

तब फिर उस बच्ची के माता-पिता और उनके आध्यात्मिक गुरु पर इस बुनियादी अवधारणा के अतिक्रमण के लिए मुकदमा क्यों नहीं चलाया जा सकता?

क्या न्याय की मांग यह नहीं है कि पूरे मामले के कानूनी पहलुओं पर तुरंत गौर किया जाए और तीनों के खिलाफ उचित कानूनी कार्रवाई शुरू की जाए?

क्या यह समय नहीं है कि बाल अधिकार आयोग आगे आए और पुलिस पर दबाव डाले कि वह बच्चे की मौत में शामिल व्यक्तियों के खिलाफ सख्त आरोप लगाए.

क्या यह सही समय नहीं है कि हमारी कानून प्रवर्तन एजेंसियां कानून के ऐसे सभी उल्लंघनकर्ताओं को एक कड़ा संदेश भेजें, जो आस्था और धार्मिक अधिकारों की आड़ में ऐसे कई कृत्यों में लिप्त हैं,

जो मूलतः मानव जीवन की पवित्रता का उल्लंघन करते हैं और इस प्रकार हमारे संविधान के मूल्यों और सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं. यह ध्यान में रखना होगा कि जब तक इस तरह के जबरिया बलिदानों के

महिमामंडन पर सवाल नहीं उठाया जाता और उन्हें चुनौती नहीं दी जाती, तब तक लोगों को इसी तरह के कदम उठाने के लिए प्रोत्साहन मिलता रहेगा.

क्या यह कहा जा सकता है कि नम्रता के माता-पिता को यह अनुष्ठान करने के लिए ‘प्रेरित’ किया गया था, क्योंकि उन्होंने अपने समुदाय में सिकंदराबाद की 13 वर्षीय लड़की की इसी तरह की ‘संथारा’ मृत्यु का महिमामंडन सुना था, और इस घटना के गवाह किसी भी करीबी रिश्तेदार के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई थी?

तथ्य यह है कि अपने माता-पिता की धार्मिक मान्यताओं के कारण नम्रता की अचानक मृत्यु कोई अलग-थलग मामला नहीं है। कुछ साल पहले, हमने एक और 13 वर्षीया लड़की की भी इसी तरह की ‘संथारा मृत्यु’ देखी थी,

जो एक बहुत ही अमीर जैन परिवार, जो आभूषण का व्यवसाय करता था, से संबंधित थी. दोनों मामलों में अंतर केवल इतना था कि यह लड़की 13 वर्ष की थी, जो 8वीं कक्षा में पढ़ती थी.

यह लड़की भी कानूनी तौर पर वह वयस्क नहीं थी, इसलिए वह वोट देने या अपनी मर्जी से विवाह करने की स्थिति में नहीं थी और इसलिए अपने कल्याण के लिए अपने माता-पिता पर निर्भर थी.

किसी भी समझदार और संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह समझ से परे होगा कि उसने दो महीने से अधिक समय तक सटीक रूप से 68 दिन- उपवास किया और उपवास समाप्त करने के दो दिन के भीतर ही हृदयाघात के कारण उसकी मृत्यु हो गई.

उसे इतने लंबे समय तक उपवास करने के लिए किस बात ने प्रेरित किया होगा? मनोवैज्ञानिकों ने तब इस मामले पर विस्तार से चर्चा की थी और इस बात को रेखांकित किया था कि माता-पिता द्वारा डाला जाने वाला अप्रत्यक्ष दबाव किस तरह से बच्चे को मनोवैज्ञानिक रूप से कमज़ोर या लाचार बना सकता है.

जब धर्म इसमें शामिल हो जाता है, तो उसके साथ अपराध बोध भी जुड़ जाता है, जो उन्हें बताता है कि अगर वे ऐसा-ऐसा नहीं करेंगे, तो परिवार को मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा.

तब वह यह मानने लगता है कि बच्चा जो कुछ भी कर रहा है, वह परिवार की भलाई के लिए ही है और उसे मूल रूप से अपने स्वास्थ्य का थोड़ा त्याग करना होगा.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि माता-पिता और यहां तक कि अन्य करीबी लोगों को भी उसे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने और ऐसी हरकतें न करने के लिए प्रेरित करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ होगा.

बल्कि घर का माहौल ऐसा रहा होगा कि परिवार में ही ऐसी हरकतों को बढ़ावा मिला होगा. पीछे मुड़कर देखें तो, उस समय जिस तरह से बच्ची के उपवास का प्रचार किया गया था,

जिस तरह से समुदाय के लोग और यहां तक कि राजनीतिक नेता भी उपवास के दौरान उससे मिलने आए थे, वह सब हैरान करने वाला है. उपवास पूरा करने के दो दिन बाद उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां हृदयाघात से उसकी मौत हो गई.

यह अविश्वसनीय लगता है कि आराधना के अंतिम संस्कार में कम से कम 600 लोग शामिल हुए और उसे ‘बाल तपस्वी’ बताया गया. अंतिम संस्कार जुलूस को ‘शोभा यात्रा’ कहा गया, जो उत्सव का प्रतीक था.

अनशन और बाद में उसकी मौत का महिमामंडन करने के पूरे प्रकरण ने बाल अधिकार कार्यकर्ताओं को नाराज कर दिया, जिन्होंने उसके माता-पिता के खिलाफ मामला भी दर्ज कराया था.

उसके माता-पिता के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (2) (हत्या के लिए दोषी नहीं, गैर इरादतन हत्या) के अलावा किशोर न्याय अधिनियम की धारा 75 के तहत विधिवत एफआईआर दर्ज की गई थी.

पता चला कि पुलिस ने ‘सबूतों के अभाव में’ पांच महीने के भीतर ही मामले को बंद करने का निर्णय ले लिया, जिसके कारण बाल अधिकार कार्यकर्ताओं की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया हुई,

जिन्होंने दावा किया कि पुलिस ने समुदाय के बुजुर्गों के साथ मिलकर मामले को कमजोर कर दिया और ‘उचित जांच के बिना ही इसे बंद कर दिया.’

नम्रता की मृत्यु, जो उसके माता-पिता और उनके आध्यात्मिक गुरु द्वारा उस पर थोपी गई, तथा उसके पहले आराधना की मृत्यु, को अलग-थलग करके नहीं देखा जा सकता.

स्वतंत्रता-पूर्व भारत ही नहीं, बल्कि स्वतंत्रता-पश्चात भारत भी ऐसे अनेक मानव-विरोधी व्यवहारों का साक्षी है, जो यहाँ मौजूद हर धर्म में प्रचलित हैं. वास्तव में, समय की मांग है कि ऐसी सभी मानव-विरोधी प्रथाओं के विरुद्ध आवाज़ उठाई जाए, जो मानवीय गरिमा को नकारने का महिमामंडन करती हैं.

अब समय आ गया है कि हम यह घोषणा करें या संकल्प लें कि मेड स्नान जैसी प्रथाएं, या फिर युवा बेटियों को महिमा मंडित करना और उन्हें ‘समर्पित’ करना, ताकि वे औपचारिक रूप से अपना शेष जीवन ‘भगवान की साथी’ के रूप में जी सकें,

लेकिन वास्तव में उन्हें यौन गुलामी का जीवन जीने के लिए अभिशप्त किया जाता है-देवदासी प्रथा आदि-आदि, इतिहास का हिस्सा बन जाएं और आखिरकार किसी भी तरह के प्रतिक्रियावादी तत्वों, आस्था या प्रबंध के साथ कोई संबंध नहीं रखा जाए.

शायद यही सबसे अच्छा तरीका है नम्रता को याद करने का, जो तीन साल की बच्ची थी और जिसे जबरिया मौत के हवाले कर दिया गया.

(‘न्यूज क्लिक’ से साभार। लेखक एक वरिष्ठ और स्वतंत्र पत्रकार हैं-अनुवाद : संजय पराते)

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