क्या अब हम ‘सच्चा इतिहास’ फ़िल्मों के ज़रिये पढ़ेंगे! आलेख: मुकुल सरल (PART-1)

gorakhpur halchal

जो ऐतिहासिक सच्चाई हमारे तमाम इतिहासकार, शोधकर्ता, सरकार का पूरा तंत्र और उसके तमाम जांच कमीशन नहीं खोज पाए, वो अब कुछ कमर्शियल फ़िल्म मेकर ढूंढ ले रहे हैं.

अब लगता है कि हमें सच्चा इतिहास जानने के लिए इतिहास की किताबें पढ़ने की ज़रूरत नहीं है, बस दो-ढाई घंटे की एक फ़िल्म देखकर हम इतिहास के प्रवक्ता हो सकते हैं.

यही नहीं, आजकल की कई फ़िल्में हमें न केवल नया इतिहास या एक पक्षीय इतिहास बता रही हैं, बल्कि अब दंगे-फ़साद के भी काम आ रही हैं. अभी हाल में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘छावा’ को लेकर इस तरह का दावा तो ख़ुद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने किया है.

नागपुर हिंसा के पीछे उन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से फ़िल्म ‘छावा’ को ज़िम्मेदार ठहरा दिया। इस हिंसा के बाद देवेंद्र फडणवीस ने बयान दिया कि यह फ़िल्म मराठा राजा छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन पर आधारित है,

इसने मुग़ल शासक औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ लोगों के गुस्से को उजागर किया है. फ़िल्म ने मराठा राजा का सच्चा इतिहास पेश किया है, जिससे औरंगज़ेब के प्रति जनता की भावनाएं फिर से जाग उठी हैं.

मुख्यमंत्री फडणवीस ने फ़िल्म ‘छावा’ की विशेष स्क्रीनिंग में भी भाग लिया था. उनका कहना है कि फ़िल्म के बाद औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ गुस्सा बड़े पैमाने पर प्रदर्शित हो रहा है.

कुछ ऐसी ही सच्चाई उजागर होने का दावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ़िल्म मेकर एकता कपूर की ‘द साबरमती रिपोर्ट’ फ़िल्म देखकर किया था, यह फ़िल्म 2002 में गुजरात के गोधरा कांड और उसके बाद हुए दंगों पर आधारित बताई गई.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 दिसंबर, 2024 को संसद भवन के बालयोगी ऑडिटोरियम में आयोजित विशेष स्क्रीनिंग के दौरान ‘द साबरमती रिपोर्ट’ फ़िल्म देखी.

इस अवसर पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, और अन्य केंद्रीय मंत्री एवं सांसद भी उपस्थित थे. फ़िल्म देखने के बाद, प्रधानमंत्री मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ‘एक्स’ पर फ़िल्म निर्माताओं की सराहना करते हुए लिखा:

“यह अच्छी बात है कि सच सामने आ रहा है, वो भी इस तरह से कि आम जनता भी इसे देख सके. झूठी धारणा सिर्फ कुछ वक्त कायम रह सकती है, हालांकि तथ्य सामने आता ही है”

यानी जो काम गुजरात दंगों को लेकर बने तमाम जांच कमीशन और सरकारी जांच एजेंसियां 20-22 साल में न कर सकीं, वो एक फ़िल्म निर्माता ने कुछ ही महीनों में करके दिखा दिया.

इसके बाद क्या कहा जा सकता है! सिर्फ़ यही कि ‘मोदी है तो मुमकिन है!’ इसमें दो राय नहीं हैं कि सिनेमा अपनी बात पहुंचाने और लोगों को जागरूक करने का बेहद सशक्त माध्यम है.

लेकिन यही सिनेमा लोगों को गुमराह करने और भड़काने के काम भी आ सकता है और फ़ासीवाद इसकी इस ख़ूबी को बख़ूबी पहचानता है और उसे अपने पक्ष में एक हथियार की तरह इस्तेमाल करता है.

पिछले कुछ समय से भारतीय हिंदी सिनेमा में ऐसी फ़िल्मों की बाढ़ आ गई है, जिन्हें एक पक्षीय या प्रोपेगैंडा फ़िल्में कहा जा सकता है. ये फ़िल्में अक्सर एक विशेष विचारधारा, राजनीतिक एजेंडा या सांस्कृतिक नैरेटिव को बढ़ावा देने के लिए बनाई जाती हैं.

आज यह विचारधारा आरएसएस-बीजेपी की विचारधारा है, जिसे राष्ट्रवाद के नाम पर पेश किया जा रहा है. इनमें से कुछ फ़िल्में खुलकर एक पक्षीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं, जबकि कुछ परोक्ष रूप से इस सोच को प्रोत्साहित करती हैं.

कुछ नाटकीय ढंग से आधा-अधूरा सच दिखाती हैं और आपको मालूम है कि आधा सच, पूरे झूठ से भी ज़्यादा ख़तरनाक होता है. ऐतिहासिक तथ्यों के नाम पर भी जो फ़िल्में आ रही हैं

उनमें भी फ़िक्शन के नाम पर छूट ले ली जाती है और अतिरंजना के साथ ऐसा नाटकीय तड़का लगाया जाता है कि सत्य और तथ्य कहीं पीछे छूट जाते हैं और एकतरफ़ा भावनाएं हावी हो जाती हैं.

क़ानूनी विवाद से बचने के लिए एक डिस्क्लेमर दे दिया जाता है कि इसका उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं है. कुल मिलाकर इन दिनों हिन्दुत्व पर गर्व

करने और इस्लामोफोबिया बढ़ाने के लिए ढूंढ-ढूंढकर ऐसी फ़िल्में बनाई जा रही हैं, जिसमें मुसलमानों को बेहद क्रूर, बर्बर खलनायक के तौर पर दिखाया जा सके.

(TO BE CONTINUED…)

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