बेशक, नरेंद्र मोदी के विरोधी कोई समूचे परिदृश्य से गायब ही नहीं थे. विपक्षी, जैसी कि उनकी जिम्मेदारी थी, इन भयंकर दंगों के संदर्भ में मोदी सरकार की विफलताओं और उसके चलते जान-माल के भयावह
नुकसान के खिलाफ लगातार और जोरदार तरीके से आवाज उठा रहे थे और विपक्षी, जिसमें मुख्यधारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा भी शामिल था, खासतौर पर इस भयावह सच्चाई के खिलाफ आवाज उठा रहे थे.
गुजरात के 2002 के दंगों के तेईस साल हो चुके हैं. फिर भी हैरानी की बात नहीं है कि इस प्रकरण का जिक्र आना भर, प्रधानमंत्री के बौखला उठने के लिए काफी होता है। इसका ताजातरीन उदाहरण,
अमरीकी वैज्ञानिक तथा पॉडकास्टर, लैक्स फ्रीडमैन के साथ प्रधानमंत्री मोदी के तीन घंटे लंबे पॉडकास्ट में सामने आया है. कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह पॉडकास्ट,
उनकी छवि निर्मित करने के अविराम जारी रहने वाले उद्यम के हिस्से के तौर पर और खासतौर पर उन अनेक मामलों में, जिनमें प्रधानमंत्री मोदी की छवि बहुत शानदार नजर नहीं आती है,
उनकी छवि को रंग-रोगन लगाकर चमकाने के सुविचारित तथा सुसंबद्घ प्रयास का ही हिस्सा है. इस सबसे जुड़ी निश्चिंतता के बावजूद, गुजरात के दंगों का जिक्र आते ही, प्रधानमंत्री मोदी अपना संतुलन ही खो बैठे लगते हैं.
न्यायपालिका द्वारा खुद को क्लीन चिट दिए जाने का अपना बार-बार का दावा दुहराने से भी नरेंद्र मोदी को संतोष नहीं हुआ और उन्होंने झूठी गाथा गढ़नी शुरू कर दी कि किस तरह,
केंद्र में सत्ता में बैठे उनके राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें दंगों के सिलसिले में आरोपों में फंसाने की और सजा दिलवाने की विफल कोशिश की थी: “उस समय हमारे राजनीतिक विरोधी सत्ता में थे और स्वाभाविक रूप वे चाहते थे कि हमारे खिलाफ सभी आरोप चिपक जाएं.
वे हमें सजा दिलाना चाहते थे, उनकी अनवरत कोशिशों के बावजूद, न्यायपालिका ने मेहनत से हालात का दो बार विश्लेषण किया और अंतत: हमें पूरी तरह से निर्दोष पाया.”
अपने साथ अन्याय की इस मोदी की गढ़ी हुई गाथा में सबसे बड़ा झूठ तो यही है कि 2002 की फरवरी के आखिर से गोधरा रेल अग्निकांड के बाद, गुजरात के अनेक हिस्सों में भड़की सांप्रदायिक हिंसा के समय ही नहीं,
उसके करीब दो साल बाद तक सिर्फ गुजरात में ही नहीं, देश के पैमाने पर भी नरेंद्र मोदी के विरोधियों की नहीं, उनकी अपनी पार्टी की ही सरकार थी. हां! अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार को भी मोदी अपने राजनीतिक विरोधियों की सरकार कह रहे हों, तो बात दूसरी है!
कहने की जरूरत नहीं है कि वाजपेयी सरकार ने कम-से-कम नरेंद्र मोदी को फंसाने और सजा दिलाने की कोई कोशिश नहीं की थी. अगर किसी भी स्तर पर सरकार नरेंद्र मोदी को सजा दिलाने की कोशिश कर रही होती,
तो तब के गुजरात के मुख्यमंत्री को, दंगों की पृष्ठभूमि में गुजरात के दौरे पर पहुंचे प्रधानमंत्री बाजपेयी के ‘राजधर्म का पालन करें’ का सार्वजनिक रूप से संदेश देने पर, ‘वही तो कर रहे हैं’ के उल्टे जवाब पर ही नहीं छोड़ दिया गया होता.
नरेंद्र मोदी ने यहां, पार्टी में अपने विरोधियों को, आम तौर पर अपने विरोधियों के साथ मिला दिया लगता है. यह तो अब किसी से छुपा हुआ नहीं है कि गुजरात के दंगे के बाद,
गोवा में हुई भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक के मौके पर, अटल बिहारी वाजपेयी के अनुमोदन से भाजपा नेताओं के एक हिस्से ने, नरेंद्र मोदी को गुजरात के दंगों को संभालने में उनकी विफलताओं के लिए, मुख्यमंत्री पद से हटवाने की कोशिश की थी.
इसे तब तक भाजपा में नंबर दो माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में, भाजपा कार्यकारिणी के बड़े हिस्से ने विफल कर दिया। बाद में भाजपा के कुछ अंदरूनी जानकारों ने तो इसे ‘वाजपेयी के खिलाफ बगावत’ तक करार दिया था.
इसी बगावत के बल पर नरेंद्र मोदी ‘सजा’ के तौर पर मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवाते-गंवाते बचे थे. अगर यह किसी तरह से सजा होती, तो उनकी अपनी पार्टी की अंदरूनी सजा होती, जिसका विरोधियों की फंसाने की किसी तरह की कोशिशों से कोई लेना-देना नहीं था.
(to be continued…)


