पहले अयोध्या में एक मस्जिद को ढहाने का भयावह कृत्य किया गया. उसके बाद जमकर खून-खराबा हुआ और अब हर मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढा जा रहा है.
इसके अलावा गाय और गौमांस के मुद्दे पर लिंचिंग हो रही है और गौरक्षकों की पूरी एक सेना खड़ी हो चुकी है. ‘’जिहाद” शब्द का इस्तेमाल मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है.
लव जिहाद से शुरू होकर कोरोना जिहाद, लैंड जिहाद, यूपीएससी जिहाद आदि की बातें की जा रही हैं. यह सही है कि मुसलमानों को निशाना बनाने के अलावा भारत में धार्मिक कट्टरतावाद के अन्य लक्षण उतने स्पष्ट नहीं दिखलाई दे रहे हैं.
मगर उनके अस्तित्व से इंकार नहीं किया जा सकता, जहां तक महिलाओं का प्रश्न है, सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है. देश में सती की आखिरी घटना 1980 के दशक का रूपकंवर कांड था.
लेकिन फिर भंवरी देवी मामले में ऊंची जाति के बलात्कारी को अदालत ने यह कहते हुए बरी कर दिया कि भला कोई ऊंची जाति का व्यक्ति नीची जाति की महिला से बलात्कार कैसे कर सकता है? यह मानसिकता जाति प्रथा से उपजी है.
हिंदू राष्ट्रवादी नीतियों को बारीकी से देखने पर यह समझ आता है कि वे मूलतः महिला विरोधी हैं. जैसे लव जिहाद को लें- यह परिवार के पुरूष सदस्यों को उनकी महिलाओं और लड़कियों पर नजर रखने का एक बहाना देता है.
जो लोग लव जिहाद का विरोध करते हैं, वे ही लड़कियों को जींस नहीं पहनने देना चाहते. हिंदू राष्ट्रवादियों के हिंसा के प्रति दृष्टिकोण की झलक हमें बिलकिस बानो मामले से मिलती है.
इस मामले में बलात्कार और हत्या के दोषियों का जेल से रिहा होने पर स्वागत किया गया था. यह अच्छा है कि अदालत ने उन्हें वापिस जेल भेज दिया. गोवा की एक महिला प्रोफेसर, जिसने मंगलसूत्र की तुलना जंजीर से करने पर गाली-गलौच का सामना करना पड़ा. ’मनुस्मृति’ को आदर्श बताया जाता है.
तवलीन सिंह हिंदू राष्ट्रवादियों के हमलों को हिंदू धार्मिकता बताती हैं. यह एकदम गलत है. उन्होंने स्वयं जय श्रीराम न कहने पर तीन मुसलमानों की चप्पलों से पिटाई का उदाहरण दिया है.
क्या यह धार्मिकता है? ऐसी घटनाओं को ‘धार्मिकता’ बताना, धार्मिक कट्टरतावाद से उनके जुड़ाव को छिपाना है. मुस्लिम कट्टरतावाद को जिहादी इस्लाम कहना भी ठीक नहीं है.
मुस्लिम कट्टरतावाद के कई स्वरूप हैं- मिस्र और कई अन्य देशों में उसे मुस्लिम ब्रदरहुड कहा जाता है. फिर ईरान की अयातुल्लाह सरकार तो है ही. धार्मिकता तो उसे कहते हैं, जिसका आचरण लाखों-करोड़ों हिंदुओं द्वारा अन्य धर्मों के लोगों के साथ रहते हुए सदियों से किया जा रहा है.
इसी ने भारत को बहुलतावादी और विविधवर्णी देश बनाया है. हिंदू राष्ट्रवाद की वर्तमान नीतियां सावरकर और गोलवलकर की विचारधारा पर आधारित हैं.
ये दोनों उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष से उपजे भारतीय राष्ट्रवाद के कटु विरोधी थे. बीसवीं सदी के महानतम हिंदू महात्मा गांधी को बहुलतावादी भारत का पक्षधर होने की कीमत अपने सीने पर गोलियां खाकर चुकानी पड़ी.
तवलीन इस ‘धार्मिकता’ से नफरत करती हैं. मगर उन्हें यह समझना चाहिए कि जिहादी इस्लाम और इस्लामिक कट्टरतावाद भी इसी रास्ते से उभरा था. राजनीति को धर्म से जोड़ा जाता है और फिर धर्म के नाम पर राजनीति पूरे समाज को बर्बाद कर देती है.
भारत में अभी यही हो रहा है। चाहे वह मस्जिदों पर दावा करना हो, मुसलमानों के घरों पर बुलडोजर चलाना हो, तृप्ता त्यागी द्वारा मुस्लिम विद्यार्थियों को पिटवाना हो या मांसाहारी भोजन स्कूल में
लाने के लिए बच्चों को स्टोर में बंद करना हो या फिर मंगलौर में पब से बाहर आ रही लड़कियों की पिटाई लगाना हो, ये सब उसी का नतीजा हैं, जिसे तवलीन सिंह ‘धार्मिकता’ कहती हैं.
(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)


