सिर्फ कैलेंडर के बदलने से नहीं बदलेंगे हालात, कुछ और भी करना होगा : बादल सरोज

gorakhpur halchal

नववर्ष की शुभकामनायें, और जैसा कि कहे जाने का रिवाज़ है उसके साथ कि, यह नया साल– 2025 – आपके लिए पिछले सभी वर्षों की अपेक्षा बेहतर हो, आप और आपके परिजन स्वस्थ और सानंद रहें, उत्तरोत्तर प्रगति करें.

सभी शंकाएं, कुशंकाएं, आशंकाएं दूर रहें; यकीन संभावनाओं में बदलें, उम्मीदें असलियत बनें और वह दुनिया, जिसमे रहना अभिशाप-सा लगता है, एक अच्छी दुनिया बने.

इसी के साथ यह भी कि सामाजिक रूप से उपयोगी बनें रहें, आदमी/औरत से इंसान बनने की ओर अग्रसर होते रहें!! भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘कुछ लिखकर सो, कुछ पढ़कर सो, जिस जगह सवेरे जागा तू, उससे कुछ आगे बढ़कर सो’ के अंदाज में हर दिन जीते रहें.

जाती हुई बरस धूल, गुबार के बादल, मलबे के पहाड़ और गज़ा से लेकर सीरिया होते हुए उधर यूक्रेन तक चीखों के कोहराम और इधर बाराबंकी से अजमेर होते हुए संभल और लोकतंत्र से संविधान की तरफ बढ़ती लपटों की तपिश और गड़े मुर्दों के उखाड़े जाने से उड़ती गर्द छोड़कर गयी है.

ट्रम्प जैसे अशुभ अमंगलकारियों के सर पर ताज रख कर गयी है. पिछली 9-10 हजार वर्षों में काफी हद तक सजी, संवरी, सुसंस्कृत और मानवीय बनी सभ्यता पिछली सदी की

एक दहाई के फासीवादी अपवाद को छोड़कर कभी इतनी मुश्किल में नहीं रही जितनी 21वीं सदी की इस दूसरी दहाई में, उसमें भी विशेष तौर से पिछले बरस में हुई है.

हालात दक्षिण एशिया के मकबूल शायर अहमद फ़राज़ के कहे “न शब ओ रोज़ ही बदले हैं न हाल अच्छा है/ किस बरहमन ने कहा था कि ये साल अच्छा है” की जिज्ञासा से काफी आगे बढ़कर क़तील शिफ़ाई के शेर

“जिस बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है/ उस को दफ़नाओ मिरे हाथ की रेखाओं में” की झुंझलाहट तक आ गयी लगती है. तरक्कियां ही धुंधलके में नहीं आई हैं, पिछाहटें भी सुर्खरू होती दिखने लगी हैं.

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के भस्मासुरी अवतार तक पहुंच चुके साम्राज्यवाद के श्वदंत–कैनाइन टीथ–न सिर्फ और नुकीले और पैने हुए हैं, बल्कि नख से शिख तक बड़े-बड़े नाखून भी उग आये हैं.

इधर, मजदूर वर्ग से सारे हक़ अधिकार छीन उसे 1886 से पहले की दशा में पहुंचाने की साजिशें रची जा रही हैं. किसानों और उनके गाँवों की हालत जिस दिशा में धकेली जा रही है,

वह वारेन हेस्टिंग्स की इंग्लैंड की संसद को दी उस रिपोर्ट की याद दिलाती है, जो वर्ष 1770 के बंगाल, बिहार, ओडिसा के अकाल में 1 करोड़ लोगों के मारे जाने के बाद उसने भेजी,

तो उसमें लिखा था कि “एक तिहाई जमीन जंगल बन गयी है, जहां जंगली जानवर रहने लगे हैं. “ इसके बाद भी मालगुजारी पिछले वर्षों की तुलना में अधिक वसूल की गयी थी, कारिंदों की लूट इसके अलावा थी.

यह वही दौर था, जिसमें यूरोप और आस्ट्रेलिया के लिए नील पैदा करने के नाम पर किसान और खेती दोनों को और बर्बाद किया गया था, खेती का वही कम्पनीकरण अब कार्पोरेटीकरण का नाम धरकर आ गया है.

इस पर प्रमुदित और बेगानी शादी में दीवाने अब्दुल्ला बने मध्यमवर्ग की हालत ‘हलुआ मिला न माड़े, दोऊ दीन से गए पांड़े’ जैसी होती जा रही है.

अच्छे दिन आने के मंत्रोच्चार में गाफिल हुआ यह पढ़ा-लिखा हिस्सा फैज़ लुधियानवी का साहब का शेर “तू नया है तो दिखा सुब्ह नई शाम नई/ वर्ना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई” दोहराते-दोहराते बेजार हो गया है, इतना थक हार गया है कि हैडलेस चिकन बना हुआ है, कुछ सूझे नहीं सूझ रहा.

इस वर्ष 1 जनवरी से शुरू होने वाली नई साल में भारत के संविधान के 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं. आजादी भले 15 अगस्त 1947 को मिल गयी थी, मगर स्वतंत्रता को यथार्थ में उतारने के नक़्शे ने 26 जनवरी 1950 को ही सूरज की पहली किरण देखी थी.

अपनी अनेक सीमाओं और सुधार की कई गुंजाइशों के बावजूद धरती के इस हिस्से के अनगिनत ग्रंथों में यही एकमात्र किताब है, जिसने सबको एक किया, थोड़ा-बहुत नेक किया और आज तक किये हुए है.

नए साल की आमद से पहले ही इस संविधान के द्वारा दिए गए लोकतंत्र का चीरहरण किया जा रहा है, इसमें लिखे मानवाधिकारों और मूलभूत अधिकारों का अपहरण किया जा रहा है.

समता, समानता और धर्मनिरपेक्षता की धज्जियां पहले ही उडाई जा चुकी हैं. इरादा संविधान में लिखे शब्दों को अक्षर-अक्षर चींथकर उनकी जगह मनुस्मृति की कालिख पोतने का है.

मगर ऐसा और ऊपर लिखे सब कुछ जैसा करने के लिए सत्ता और सामर्थ्य के गुरूर में चूर इधर और उधर के हुक्मरान जानते हैं कि मनुष्य से ज्यादा शक्तिशाली और कोई नहीं होता;

उसके लिए जीवन के मायने जनकवि मुकुट बिहारी सरोज के मुक्तक “जिंदगी केवल न जीने का बहाना/ जिंदगी केवल न साँसों का खजाना/ जिंदगी सिन्दूर है पूरब दिशा का/ जिदगी का काम है सूरज उगाना “ की तरह होते हैं.

देश-दुनिया में हो रहे आंदोलन और संघर्ष इसके गवाह हैं. ये संघर्ष अब रूपये-पैसे की लड़ाई से आगे बढ़ते हुए श्रीलंका जैसे राजनीतिक बदलाव की कामयाबियों में भी रूपांतरित हो रहे हैं.

नया वर्ष इसी तरह के उभारों को और ऊंचाईयां देने का वर्ष होना चाहिए; इन्हें तेज करके ही बचाई जा सकती है मनुष्यता, यहीं हैं जो बचा सकते हैं इस मनुष्यता को पनाह देने वाली पृथ्वी को!!, क्योंकि “सिर्फ कैलेंडर के बदलने से नहीं बदलेगा/ यूँ अपने आप तो बिलकुल भी नहीं बदलेगा!!”

(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *