भाजपा के सर्वोच्च रणनीतिकार माने जाने वाले, अमित शाह ऐलान कर चुके थे कि उनका गठजोड़ बिहार का चुनाव और उससे अगले चरण में कम से कम असम तथा प. बंगाल का चुनाव भी, किस मुद्दे के आसरे लड़ने जा रहा है.
यह मुद्दा है-‘घुसपैठियों का खतरा’ दैनिक जागरण के एक आयोजन में अपने सार्वजनिक व्याख्यान में अमित शाह ने यह ऐलान किया और इसी व्याख्यान में अमित शाह ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि
‘घुसपैठियों’ से उनका आशय, पड़ोसी देशों से आए मुसलमान प्रवासियों से ही है, जो ‘आर्थिक कारणों’ से आते हैं.
बंगलादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि, पड़ोसी देशों में कथित रूप से धार्मिक-उत्पीड़न के कारण आने वाले—जाहिर है कि हिंदू—तो घुसपैठिये नहीं, प्रवासी हैं!
बहरहाल अमित शाह सिर्फ पड़ोसी देशों से आए प्रवासियों को इस तरह हिंदू और मुसलमान में विभाजित करने और प्रवासी मुसलमानों को ‘खतरा’ और प्रवासी हिंदुओं को ‘अपना’ बताने पर ही नहीं रुके.
उन्होंने इस खतरे को बेहिसाब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का हथकंडा आजमाया ताकि चुनाव प्रचार के लिए ‘हिंदू खतरे में हैं’ का जोर-शोर से ढोल पीटा जा सके.
यह दूसरी बात है कि भाजपा के चाणक्य ने यह ढोल कुछ ऐसे अनाड़ीपन से और इतने जोर से पीटा कि ढोल ही फट गया.
इस विशाल देश के गृहमंत्री को, ट्वीट डिलीट करना पड़ा और बाद में एक संशोधित ट्वीट जारी करना पड़ा, जिसमें से असली पंच लाइन ही गायब हो चुकी थी.
लेकिन, ऐसा होना संयोग हर्गिज नहीं है. बेशक, अमित शाह भारत के गृहमंत्री हैं, लेकिन शाह आरएसएस के परखे हुए स्वयंसेवक पहले हैं.
और आरएसएस के शीर्ष हलके अब हिटलर की विचार तथा आचार की परंपरा से अपने रिश्तों को छुपाने की चाहे जितनी कोशिश क्यों न करें, लेकिन खुद को हिटलर के प्रचार मंत्री, गोयबल्स का सच्चा चेला साबित करने में हमेशा लगे रहते हैं.
शाह ने अपने व्याख्यान में और उस पर आधारित ट्वीट में भी दावा किया था कि आजादी के बाद से भारत में मुसलमानों का अनुपात बढ़ता ही गया है और हिंदुओं का अनुपात तेजी से घटता जा रहा है, जो कि खतरनाक है.
इस क्रम में शाह ने 1951 की जनगणना से लगाकर हिंदुओं और मुसलमानों के आबादी अनुपात के आंकड़े पेश करते हुए,
बताया कि जहां हिंदुओं की आबादी, जो 1951 में 84 फीसद थी, 2011 में 79 फीसद रह गयी है और इसी दौरान मुसलमानों की आबादी 9.8 से बढ़कर 14.2 फीसद हो गयी है.
फिर भी यहां तक तो हिंदुओं के लिए बहुत विचलित होने का कारण नहीं बनता है. बेशक, देश की कुल आबादी में हिंदुओं का अनुपात घटा है
और मुसलमानों का अनुपात बढ़ा है, लेकिन दोनों की जनसंख्याओं में अंतर इतना बड़ा है कि ये आंकड़े शायद ही खास चिंता पैदा करेंगे.
आखिरकार, साठ साल में आबादी में मुसलमानों का अनुपात कुल 4.4 फीसद बढ़ा है और हिंदुओं का अनुपात इससे कुछ कम ही घटा है.
और साठ साल की कमी और बढ़ोतरी के बावजूद, हिंदू आबादी 80 फीसद के करीब है, जबकि मुस्लिम आबादी 14 फीसद से थोड़ी-सी ही ज्यादा है.
अगर हिंदुओं की आबादी घटने और मुसलमानों की आबादी बढ़ने की यही रफ्तार रहती है, जो कि होना, असंभव है और जैसा कि हम आगे देखेंगे,
तब भी सरल गणित के हिसाब से भारत में मुसलमानों की आबादी को हिंदुओं की आबादी के बराबर होने में कम से कम साढ़े पांच सौ साल तो जरूर लग जाएंगे.
जाहिर है कि इतनी दूर का खतरा दिखाकर, अगले ही महीने होने वाले चुनाव में वोट हासिल करने की, बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती है.
वास्तव में न पांच सौ साल में, न हजार साल में, तार्किक रूप से आबादी में मुसलमानों का हिस्सा कभी भी हिंदुओं से ज्यादा नहीं होने वाला है.
और इसकी सीधी सी वजह यह है कि कुल आबादी में मुसलमानों का हिस्सा आजादी के बाद से बढ़ता जरूर रहा है, लेकिन यह रुझान गिरावट पर है.
यह इसलिए है कि जहां भारत में सभी समुदायों की प्रजनन दर घट रही है, फिर भी मुस्लिम आबादी में प्रजनन दर में गिरावट, हिंदू आबादी की प्रजनन दर की तुलना में कहीं ज्यादा है.
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार, 1992-93 में मुस्लिम समुदाय के मामले में प्रजनन दर, प्रति महिला 4.4 बच्चे थी,
जो 2019-21 में घटकर 2.3 फीसद हो गयी, जबकि इसी दौरान हिंदू समुदाय में प्रजनन दर 3.3 फीसद से घटकर 1.9 पर आ गयी.
इस तरह, मुस्लिम समुदाय में प्रति महिला 2.1 बच्चों के जन्म की कमी दर्ज की गयी, जबकि हिंदुओं के मामले में यही कमी 1.4 प्रति महिला थी.
इसलिए, वह दिन ज्यादा दूर नहीं है, जब हिंदू और मुस्लिम आबादी की वृद्घि दर बराबर हो जाएगी और आबादी अनुपात में किसी उल्लेखनीय घटत-बढ़त का किस्सा ही खत्म हो जाएगा.
To Be Continued…


