शर्मिष्ठा पनोली का मामला: लोकतंत्र वाकई खतरे में है! आलेख: संजय पराते (PART-1)

gorakhpur halchal

लगता है हमारी सरकार और न्यायपालिका के लिए सांप्रदायिकता, वैमनस्यता और धार्मिक भावनाओं को आहत करने के पैमाने अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग है.

सत्ताधारी पार्टी से जुड़े नेताओं के लिए अलग और बाकी विपक्षियों और आम जनता के लिए अलग. अब डॉ. अली खान मेहमूदाबाद के बाद शर्मिष्ठा पनोली का नया मामला सामने आया है.

शर्मिष्ठा पुणे की लॉ स्टूडेंट हैं और सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय है और उनके वीडियो को दर्शकों के एक बड़े तबके की सराहना मिली है, उनके लाखों फॉलोवर्स हैं.

पिछले दिनों उन्होंने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर एक वीडियो पोस्ट किया था और बॉलीवुड सितारों, विशेषकर खान अभिनेताओं की चुप्पी पर सवाल उठाए गए थे.

इस पोस्ट में न तो सेना पर और न उसके किसी अधिकारी पर ही कोई टिप्पणी है, लेकिन इस पोस्ट के बाद उन पर भड़काऊ और सांप्रदायिक वीडियो पोस्ट करने और धार्मिक आधार पर वैमनस्यता फैलाने का आरोप लगाया गया और उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई.

इस एफआईआर के दर्ज होते ही शर्मिष्ठा ने वीडियो डिलीट कर माफी मांग ली. सामान्यतः बात को आया-गया मान लिया जाना चाहिए था क्योंकि खान अभिनेताओं ने भी शर्मिष्ठा की टिप्पणी पर अपनी कोई प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की थी.

लेकिन चूंकि शर्मिष्ठा हिन्दू हैं और सवाल उन्होंने मुस्लिम अभिनेताओं की चुप्पी पर उठाया था, इसलिए हिंदू-मुस्लिम एंगल खोजकर इसे राजनैतिक रंग दिए जाने और फिर ध्रुवीकरण का खेल खेले जाने की पर्याप्त गुंजाइश तो बनती ही थी.

इस गुंजाइश को छोड़ दे, तो हमारे देश की राजनैतिक पार्टियों का पतन ही हो जाएगा. सो, राजनीति शुरू हो गई. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है, जो गाहे-बगाहे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देती थकती नहीं,

लेकिन जिसका सबसे बड़ा रिकॉर्ड इस स्वतंत्रता का दमन करने का ही मिलता है. बंगाल के अंदर वह अपने तेवर तो केंद्र की सांप्रदायिक भाजपा के खिलाफ लड़ने के दिखाती हैं, लेकिन उसके राजनैतिक दमन के निशाने पर वामपंथियों से बढ़कर और कोई नहीं है.

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पूरी लड़ाई ‘बंगाल में मैं राज करूं, दिल्ली में तू कर’ वाली है. हमारी पुलिस भले ही चोर-डाकू, बलात्कारियों, भूमिगत भ्रष्टाचारियों-जालसाजों को खोज न पाती हो या उन्हें पकड़ते उसके हाथ थर-थर कांपते हो,

लेकिन सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों की धर-पकड़ के मामले में उस पर ऐसा आरोप नहीं लगाया जा सकता. इन मामलों में उसकी दक्षता स्वतः प्रमाणित है.

किसी ने एफआईआर की नहीं कि पुलिस को पता चल जाता है कि गंभीर अपराध हुआ है. ऐसा अपराध, जो पूरे समाज को संकट में डाल सकता है और सैनिकों-जैसी युद्ध-गति से समाज को इस संकट से बाहर निकालने की उसकी जिम्मेदारी बनती है.

सो, बिना कोई देरी किए तृणमूल कांग्रेस की पुलिस उस दिल्ली में पहुंच गई, जहां केंद्र की पुलिस का राज है और भाजपाई गृह मंत्री के इशारे के बिना कोई पत्ता नहीं खड़कता.

बंगाल पुलिस शर्मिष्ठा को गुरुग्राम से गिरफ्तार करके कोलकाता ले आती है, न्यायालय में पेश करती है और न्याय की देवी अपने खुले आंखों से उसे 14 दिनों के लिए न्यायिक हिरासत में भेज देती है.

अब न्यायपालिका के बारे में यह टिप्पणी मत कीजिए कि कैसे उसने सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करने वाले भाजपाई सांसद निशिकांत दुबे के लिए या कर्नल सोफिया कुरैशी को ‘आतंकवादियों की बहन’ बताने वाले मध्यप्रदेश के भाजपाई उप-मुख्यमंत्री विजय शाह के लिए नरमाई बरती है.

भाजपा राज में अब यह स्थापित होता जा रहा है कि इस देश के नागरिकों को न्याय उसके ‘स्टेटस’ के आधार पर मिलेगा. इधर शर्मिष्ठा जेल गई और उधर अपनी बेहूदगी और असभ्यता के लिए चर्चित अभिनेत्री और भाजपा सांसद कंगना राणावत मैदान में कूद पड़ी है.

ये वही मोहतरमा है, जिन्होंने खोज की है कि हमारे देश को असली स्वतंत्रता तो वर्ष 2014 में हिंदू हृदय सम्राट नरेंद्र मोदी के राज तिलक के बाद मिली है.

सो, इस नई-नई मिली आजादी में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए तो उन्हें ही लड़ना है जिसका दमन ममता राज की पुलिस कर रही है. उन्होंने शर्मिष्ठा की रिहाई की मांग करते हुए उत्तर कोरिया की धुलाई कर दी.

उनका कहना था कि पश्चिम बंगाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हालत उत्तर कोरिया जैसे देश से भी खराब हो गई है. शायद कंगना को नहीं मालूम कि प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में इस वर्ष 180 देशों की सूची में भारत की रैंकिंग 151वीं है,

जबकि चार साल पहले वर्ष 2021 में हम 142वें स्थान पर खड़े थे. मोदी राज में विश्व के पैमाने पर हमारी स्वतंत्र अभिव्यक्ति के प्रदर्शन के मामले में स्थिति दयनीय ही हुई है और जिसने भी अपनी संविधान प्रदत्त स्वतंत्रता का उपयोग किया है, उसे दमन का सामना करना पड़ा है.

वैसे, भाजपाईयों से पढ़ने-लिखने की उम्मीद भी नहीं की जाती, क्योंकि उनका वैयक्तिक विकास का मार्ग तो अज्ञानता से ही निकलता है. बंगाल के भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी भी बहती गंगा में हाथ धोने से नहीं चूके.

आखिर उन्हें ही बंगाल में राजनीति करनी है, कंगना को नहीं. वे बंगाल के ‘चीफ मिनिस्टर इन वेटिंग’ भी है. अभी उन्हें ‘आडवाणी-गति’ प्राप्त होने की उम्मीद नहीं है. सो, वे क्यों चुप रहते?

शर्मिष्ठा की गिरफ्तारी में उन्हें ‘तुष्टिकरण की राजनीति’ दिखनी ही थी. उन्होंने भी यह आरोप लगाने में देर नहीं की कि यह कार्रवाई आगामी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए मुस्लिम वोट बैंक को साधने के लिए की गई है.

अब इस गिरफ्तारी से तृणमूल कितना मुस्लिम वोट बैंक साध पाती है और भाजपा कितना हिंदू वोट बैंक साधती है, यह अलग बात है, लेकिन इतना तय है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के छुरे से चुनाव को साधने की पूरी तैयारी है,

जिसका शंखनाद बंगाल में जाकर अमित शाह कर चुके हैं और जिस चुनौती को ममता ने भी ललकार कर स्वीकार किया है. अब इस ध्रुवीकरण के खेल में भला जिसका भी हो, एक बात तय है, नुकसान तो वामपंथियों का ही होने वाला है.

(TO BE CONTINUED…)

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